Saturday, May 25, 2019

SANKSHIPT RAMAYAN | संक्षिप्त रामायण

संक्षिप्त रामायण 


।।  श्री राम ।।

दो शब्द  

आज के व्यस्त जीवन में समय की कमी को ध्यान में रखते हुए संक्षिप्त रामायण का संकलन इस पुस्तक में किया गया है। ये कथा श्री कागभुशुण्डिजी ने श्री गरुड़जी को उनके संदेह निवारण हेतु सुनायी है। इसमें पूर्ण रामचरित्र का अवलोकन हो जाता है। इसके नित्य पाठ से मानव मात्र के सम्पूर्ण शोक, सन्देह इत्यादि का निवारण हो जाता है। 

भजन 


जय जय जय हनुमान जी - राम राम।।
केसरी किशोर माता अंजनि के प्यारे,
बस में तुम्हारे भगवान जी - राम राम।।
बड़े- बड़े काज सुधारे एक पल में,
मन में नहीं अभिमान जी - राम राम।।
आप पधारो जहाँ राम गुणगान हो,
विद्या बल बुद्धि की खान जी - राम राम।।
शम्भु शरण राम की कथा में नित्य प्रेम बढे,
चरण कमल में मेरो ध्यान जी - राम राम।।
जय जय जय हनुमान जी - राम राम।।

मंगलाचरण 


लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्। 
कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचन्द्रं शरणं  प्रपद्ये।।
मनोजवं मारुततुल्य वेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्। 
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीराम दूतं शरणं प्रपद्ये।।
राजिव नयन धरें धनु सायक । भगत बिपति भंजन सुख दायक।।
मंगल भवन अमंगल हारी । द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।।
जनक सुता जग जननि जानकी । अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।
ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपा निरमल मति पावउँ।।
महाबीर बिनवउँ हनुमाना । राम जासु जस आप बखाना ।।
सो०  : प्रनवउँ पवन कुमार, खल बन पावक ग्यानघन। 
           जासु हृदय आगार, बसहिं राम सर चाप धर।।
           कुंद इन्दु सम देह, उमा रमन करुना अयन। 
            जाहि दीन पर नेह, करउ कृपा मर्दन मयन।।
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
    

श्री राम स्तुति 


श्री रामचन्द्र कृपालु भजुमन हरण भवभय दारुणं।
नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं॥१॥

कन्दर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरं।
पटपीत मानहुँ तडित रुचि शुचि नोमि जनक सुतावरं॥२॥

भजु दीनबन्धु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं।
रघुनन्द आनन्द कन्द कोशल चन्द दशरथ नन्दनं॥३॥

शिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अङ्ग विभूषणं।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खरदूषणं॥४॥

इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनं।
मम् हृदय कंज निवास कुरु कामादि खलदल गंजनं॥५॥

दो०  : श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।
तुलसीदास जी के पद कमल बारम्बार मनाय।
गुण गावउँ सियराम के हनुमत होउ सहाय।।

मंगल भवन अमंगल हारी । द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।।
जय जय जय हनुमान गोसाई । कृपा करहु गुरुदेव की नाई।।

।।  राजा राम राम राम सीता राम राम राम ।।

।।  जय श्री राम ।।


देवताओं के द्वारा भगवान से करुण पुकार



जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता। 
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रियकंता।
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई। 
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई।।
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा। 
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा।।
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा। 
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंद।।
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा। 
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा।।
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन विपति बरूथा। 
मन बच क्रम बानी छाड़ि सायानी सरन सकल सुरजूथा।।
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना। 
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना।।
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुन्दर गुनमंदिर सुखपुंजा। 
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा।।

दो० - जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह। 
   गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक सदेह।।


भगवन के प्राकट्य पर स्तुति  


भए प्रगट कृपाला, दीनदयाला, कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी, मुनि मन हारी, अद्भुत रूप बिचारी॥

लोचन अभिरामा, तनु घनस्यामा, निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला, नयन बिसाला, सोभासिंधु खरारी॥

कह दुइ कर जोरी, अस्तुति तोरी, केहि बिधि करूं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना, वेद पुरान भनंता॥

करुना सुख सागर, सब गुन आगर, जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी, जन अनुरागी, भयउ प्रगट श्रीकंता॥

ब्रह्मांड निकाया, निर्मित माया, रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी, यह उपहासी, सुनत धीर मति थिर न रहै॥

उपजा जब ग्याना, प्रभु मुसुकाना, चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई, मातु बुझाई, जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥

माता पुनि बोली, सो मति डोली, तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला, अति प्रियसीला, यह सुख परम अनूपा॥

सुनि बचन सुजाना, रोदन ठाना, होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं, हरिपद पावहिं, ते न परहिं भवकूपा॥

दो० - बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार। 
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार।।

संक्षिप्त रामायण 


दो० - नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज। 
आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज।।
सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस। 
जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस।।
सुनहु तात जेहि कारन आयउँ।  सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।
देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।
अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि।।
सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोहि।।
सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता।।
भयउ तासु मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा।।
प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी।।
पुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा।।
प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई।।

दो० - बालचरित कहि बिबिध बिधि मन महँ परम उछाह। 
रिषि आगवन कहेसि पुनि श्रीरघुबीर बिबाह।।

बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा।।
पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा।।
बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा।।
बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना।।
सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना।।
करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी।।
पुनि रघुपति बहुबिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए।
भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी।।

दो ० - कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग। 
बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग।।

कहि दंडक बन पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई।।
पुनि प्रभु पंचवटी कृत बासा। भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा।।
पुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा।।
खर दूषण बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना।।
डसंकधर मारीच बतकही। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही।।
पुनि माया सीता कर हरना। श्री रघुबीर बिरह कछु बरना।।
पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही। बधि कंबध सबरिहि गति दीन्ही।।
बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबार तीरा।।

दो ० - प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग। 
पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग।।
कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास। 
बरनन बर्षा सरद अरु राम कपि त्रास।।

जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिसि धाए।।
बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँति। कपिन्ह बहोरि मिला संपाती।।
सुनि सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा।।
लँका कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा।।
बन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी।।
आए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही की कुसल सुनाई।।
सेन समेति जथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा।।
मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई।।
दो ० - सेतु बाँधी कपि सेन जिमि उतरी सागर पार।
गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार।।
निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार। 
कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार।।

निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना।।
रावन बध मंदोदरि सोका। राज बिभीषन देव असोका।।
सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी।।
पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता।।
जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए।।
कहेसि बहोरि राम अभिषेका। पुर बरनत नृपनीति अनेका।।
कथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी।।
सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा।।

सो ० - गयउ मोर सदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित। 
भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक।।

।। शिवाष्टक ।।


जय शिवशंकर, जय गंगाधर, करुणाकर करतार हरे,
जय कैलासी, जय अविनाशी, सुखराशी, सुख-सार हरे।
जय शशि-शेखर, जय डमरूधर, जय जय प्रेमागार हरे,
जय त्रिपुरारी, जय मदहारी, अमित, अनन्त अपार हरे। 
निर्गुण जय जय, सगुण अनामय, निराकार साकार हरे,
पारवती पति, हर हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे।।

जय रामेश्वर, जय नागेश्वर, बैद्यनाथ, केदार हरे,
मल्लिकार्जुन, सोमनाथ, जय महाकाल, ओंकार हरे। 
त्रयंबकेश्वर, जय घुश्मेश्वर, भीमेश्वर जगतार हरे,
काशीपति श्री विश्वनाथ जय, मंगलमय अघ-हार हरे। 
नीलकण्ठ जय, भूतनाथ जय, मृत्युंजय अविकार हरे,
पारवती पति, हर हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे।।

जय महेश, जय जय भवेश, जय आदि देव महादेव विभो,
किस मुख से हे गुणातीत प्रभु, तव अपार गुण वर्णन हो। 
जय भवकारक, तारक, हारक, पातक-दारक, शिव शम्भो,
दीन-दुःखहर, सर्व सुखाकर, प्रेम सुधाकर की जय हो। 
पार लगा दो भवसागर से, बनकर कर्णाधार हरे,
पारवती पति, हर हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे।।

जय मन भावन, जय अतिपावन, शोक नशावन शिव शम्भो,
विपद-विदारन, अधम-उधारन, सत्य-सनातन शिव शम्भो। 
सहज-वचन हर, जलज नयनवर धवल-वरन तन शिव शम्भो,
मदन कदनकर, पाप-हरन-हर, चरन-मनन-धन, शिव शम्भो। 
विवसन,  विश्वरूप,  प्रलयंकर,  जग  के  मूलाधार  हरे,
पारवती पति, हर हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे।।

भोलेनाथ कृपालु दयामय,औढरदानी शिव योगी,
निमिष-मात्र में देते हैं, नवनिधि मनमानी शिव योगी। 
सरल हृदय अति करुणा सागर, अकथ कहानी शिवयोगी,
भक्तों पर सर्वस्व लुटा कर, बने मसानी शिव योगी। 
स्वंय अकिंचन, जान मन रंजन, परशिव परम उदार हरे,
पारवती पति, हर हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे।।

आशुतोष इस मोह-मयी, निद्रा से मुझे जगा देना,
विषम-वेदना से विषयों की, मायाधीश छुड़ा देना। 
रूप सुधा की एक बूँद से, जीवन मुक्त बना देना,
दिव्य-ज्ञान-भण्डार-युगल-चरणों की लगन लगा देना। 
एकबार इस मन मन्दिर में, कीजै पद संचार हरे,
पारवती पति, हर हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे।।

दानी हो, दो भिक्षा में अपनी अनपायनि भक्ति प्रभो,
शक्तिमान हो, दो अविचल निष्काम प्रेम की शक्ति प्रभो। 
त्यागी हो, दो इस असार संसार से पूर्ण विरक्ति प्रभो,
परम पिता हो, दो तुम अपने चरणों में अनुरक्ति प्रभो। 
स्वामी हो, निज सेवक की सुन लेना करुण पुकार हरे,
पारवती पति, हर हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे।।

तुम बिन 'व्याकुल' हूँ प्राणेश्वर, आ जाओ भगवन्त हरे। 
विरह व्यथित हूँ, दीन दुखी हूँ, दीन दयाल अनन्त हरे,
आओ तुम मेरे हो जाओ, आ जाओ श्रीमन्त हरे। 
मेरी इस दयनीय दशा पर, कुछ तो करो विचार हरे,
पारवती पति, हर हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे।।


कन्या के शीघ्र विवाह के लिए उपाय 

पार्वतीजी के चित्र पर चन्दन-पुष्प चढ़ाकर निम्नलिखित
 चौपाईयों का श्रद्धा एवं विश्वास पूर्वक पाठ करें -
जय जय गिरिबर राज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।।
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।।
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।।
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।
दो ० - पतिदेवता सुतिय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष।।
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी।।
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर-सबही कें।।
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।।
बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।।
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।।
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।।
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।।

छं ० - मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।।
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।।

सो ० - जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।

श्री रामराज्य तिलक

प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा।।
रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई।।
जनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई।।
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे।।
प्रथम तिलक बसिष्ठ मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा।।
सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी
बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे। जाचक सकल अचानक कीन्हे।।
सिंघासन पर त्रिभुअन साई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई।।

श्री रामायण जी की आरती

आरति श्रीरामायणजी की। कीरति कलित ललित सिय पी की।।
गावत ब्रह्मादिक मुनि नारद। बालमीक बिग्यान बिसारद।।
सुक सनकादि सेष अरु सारद। बरनि पवनसुत कीरति नीकी।।
गावत बेद पुरान अष्टदस। छओ सास्त्र सब ग्रन्थन को रस।।
मुनि जन धन संतन को सरबस। सार अंस संमत सबही की।।
गावत संतत सम्भु भवानी। अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी।।
ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी। कागभुसुंडि गरुड़ के ही की।।
कलिमल हरनि विषय रस फीकी। सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की।।
दलन रोग भव मूरि अमी की। तात मात सब बिधि तुलसी की।

दोहा

बार बार बर मांगउ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहु मोहि राम।।
सेवा पूजा बन्दगी सभी आपके हाथ।।
मैं तो कछु जानूँ  नहीं तुम जानो रघुनाथ।।

।।सियावर रमचन्द्र की जय।।

भजन

हे पंचमुखी हनुमान, संकट दूर करो।
मैं धरूँ तुम्हारा ध्यान, संकट दूर करो।।
पंचानन दसभुज सुखकारी, सिद्ध पीठ में ज्योति तुम्हारी।
श्री राम नाम बरदान,संकट दूर करो।।
यात्री दूर दूर से आवे, दरशन कर इच्छित फल पावे।
है महिमा बड़ी महान, संकट दूर करो।।
दुर्गमकाज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।
कहे तुलसीदास बखान, संकट दूर करो।।
शम्भु शरण सदा सुख चावै, राम भजन बिनु कैसे पावे।
मिल जावे भगवान, संकट दूर करो।।

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